विपदाओं और जीवन के बीच मनुष्यता


 


 


पिछले कुछेक दिन से विश्व प्राणघातक संक्रमण के समय से गुजर रहा है। दूसरे देशों से जानलेवा बीमारी के रूप में जिस तरह से एक भयावहता हमारे देश में आयी है उसने एक बार फिर भविष्य को लेकर सभी को अन्देशे से भर दिया है। यह ऐसे वक्त का संकट है जब एक बार मानवता आपस में पास-पड़ोस के बारे में सोचना छोड़कर अपने लिये विचार करना शुरू कर देती है। हालांकि, यह भी उतना ही सच है कि मोहल्ले और पड़ोस के बारे में सोचना छोड़े हुए भी हमको बरसों हो गये हैं। बदलती सदी, युग और आधुनिकता तथा तकनीकी क्रान्ति और आविष्कारों के दौर में आवश्यकता से अधिक सूझबूझ हमने हासिल कर ली है। उसको व्यर्थ ही वरदान या व्यक्तित्व का गुण मानते हुए उसका प्रयोग हम अपने लोगों में किया करते हैं। कहा तो यही जाने लगा है कि अब यह समाज इसी तरह चलेगा। मन या अन्तरात्मा में देखने और झांकने का न तो किसी के पास अवकाश है और न ही इच्छाशक्ति। अगर भौतिक सुखों और उपलब्धियों को ही सब कुछ न मान लिया जाये तो इस बात को स्वीकारा जा सकता है कि हममें वह सब बहुत-सा अब नहीं बचा, जिसके साथ हम मनुष्य कहलाया करते थे। अब मनुष्यता कामना और प्रार्थना की चीज हो गयी है। बहरहाल, हमारे आसपास की दुनिया की खिड़कियां जिस तरह से एक-एक करके बन्द होती दिखती हैं वैसे-वैसे वातावरण एक अजीब-सी उदासीनता और सन्नाटे में बदलता चला जाता है। जान है तो जहान है इससे बड़ा आप्तवाक्य आज के समय में शायद ही कोई दूसरा हो। तो जिसके पास सेनेटाइजर है, मास्क हैं या आने वाले समय के लिए भरपूर मात्रा में संगृहीत है वह भीतर ही भीतर खुश है यह सोचकर कि वह सुरक्षित है। ग्राहकों को मना करने, महंगा बेचने वाले और दबाकर रखने वाले लालची दुकानदार इस बात में खुश हैं कि लोग और चक्कर लगायें, गिड़गिड़ायें और अधिक दाम देकर जरूरत का सामान ले जायें तो जमकर कमायी हो जाने वाली है। परिवार में इस बात का विचार होने लगा है कि ऐसे ही चलता रहा तो कप! के समय अपनाये जाने वाले तरीके की तरह ही खाने-पीने का स्टाक जमा कर लिया जाये। आम मानसिकता को समझकर दो कदम आगे चलने वाले व्यापारी इनके भाव बढ़ाने देने को जैसे तत्पर ही बैठे होंगे। हम फिर सरकार के चाबुक का इन्तजार करेंगे जो इन पर बड़ी देर बाद चलायेगी। सब ओर गतिविधियां बन्द हो गयी हैं। सामूहिकता पर पहरे लग गये हैं। सांस्कृतिक वातावरण ठहर गया है। गायन, वादन, नृत्य की सभाएं नहीं हो रही हैं। नाटक और सिनेमा होना बन्द हो गये हैं। कला दीर्घाएं और संग्रहालय में ताले लगे हुए हैं। बाग-बगीचे- पार्क और मॉल बन्द हो गये हैं। रेल विभाग ने उस प्लेटफॉर्म टिकट को पचास रुपये का कर दिया है, जिसे लोग बरसों से खरीदना बन्द कर चुके हैं। एक जगह सब एकत्र न हों क्योंकि संक्रमण का खतरा है, धारा एक सौ चवालीस लग रही थी जो कयूं में तब्दील हो गयी है। सब लोग आपस में बड़ा दिल करके कह रहे हैं कि भैया कहीं आने- जाने की जरूरत नहीं है या कि आप अपने ही घर रहो. बिल्कल भी हमारे घर न आओहमें जरा भी बुरा न लगेगा। वैसे भी कौन हमेशा आया ही करते थे। लेकिन इन सबके बाद भी हमारा ध्यान उस शेष समाज की ओर जरूर जाना चाहिए, जिसका जीवनजीवनचर्या और काम रोजमर्रा के दिनों की तरह ही चल रहे हैं। वे हमारी ड्यूटी पर हैंहमारे लिए ड्यूटी पर हैं। रेलों, बसों और लोकल ट्रेनों में पिछले दिनों किस तरह से लोग जान जोखिम में डालकर काम पर जाते रहे। शहरी सभ्यता और दिखावे के जीवन हमसे सचमुच हमारा आत्मबल ही छीन लिया है जो हमको इतना डराये रखता हैहमारे ही देश के लाखों गांवों में आज भी जीवन उसकी दिनचर्या और रफ्तार से चल रहा है, यह सच मानिए कि उनके घरों में न सेनेटाइजर होगा न वे मास्क ही बांधे होंगे। फिर भी हर दिन खेती, किसानी, मेहनत, मजदूरी के लिए निकलते होंगे। विचारणीय है कि विपदाएं और आपदाएं हमें आपस में कितना जोड़ने का काम करती हैं और कितना दूर करने का काम करती हैं। अन्देशों और सन्देहों की धुंध कई बार तेजी से आकाश पर छा जाती है और बाद में छंट भी जाती है लेकिन उस अवधि में यदि हम अपना धीरज और विवेक खो देते हैं और उसे थोड़ा-सा भी बचाये नहीं रख पाते तो यह हमारी बड़ी हार या मनुष्यता का बड़ा क्षरण कहलायेगा। यह वायरस कुछ दिन में अपने अस्तित्व से चला जायेगा। सरकार से लेकर वैज्ञानिक और चिकित्सक और जागरूक लोग दुनिया और जनता को इस संकट से भी उबार लेंगे। एक बार फिर दुनिया रौनकमन्द हो जायेगी। बाजार खुल जायेंगे, मॉल खुल जायेंगे, गायन, वादन, नृत्य की सभाएं होना शुरू हो जायेंगी। रंगमंच जाग उठेगा। सिनेमा घर चालू हो जायेंगे। लेकिन जब हम सब आपस में मिलेंगे तो संकट के वक्त का व्यवहार और पारस्परिक उपेक्षा का मलाल एक-दूसरे में न हो. इसकी चिन्ता आज करनी होगी।