कोरोना वायरस का अर्थव्यवस्था पर दीर्घकालीन प्रभाव तीन अनिश्चितताओं से निर्धारित होगा। पहली अनिश्चितता यह कि इसके नियंत्रण के लिए वैक्सीन का आविष्कार हो पाता है या नहीं। वैक्सीन के आविष्कार हो जाने से इस रोग को थामा जा सकेगा। इसके अभाव में यह रोग और बढ़ सकता है। दूसरी अनिश्चितता यह कि गर्मी के मौसम में यह वायरस कितना स्वनियंत्रित होता है। गर्मी से इसके मर जाने के बाद अर्थव्यवस्था को कुछ गति मिल सकती है। गर्मी में यह छुप के रहा तो बाद में भी समस्या बनी रहेगी। तीसरी अनिश्चितता यह है कि सामान्य फ्लू की तरह इस वायरस से आम आदमी के शरीर में इम्युनिटी यानी रोग प्रतिरोधक शक्ति का स्वतः विकास होता है या नहीं। यदि इम्युनिटी का विकास हुआ तो आने वाले समय में फ्लू आदि रोगों की तरह कोरोना का विस्तार सीमित हो जायेगा अन्यथा यह चलेगा। यदि ये अनिश्चितताएं नियंत्रण की दिशा में बढ़ीं तो अर्थव्यवस्था शीघ्र ही पुनः पटरी पर आ जाएगी जैसे अंग्रेजी का 'यू' अक्षर होता है। लेकिन यदि ये अनिश्चितताएं विपरीत दिशा में गयीं तो अर्थव्यवस्था का आकार अंग्रेजी के 'एल' अक्षर की तरह हो जायेगा और अर्थव्यवस्था नीचे के स्तर पर लम्बे समय तक बनी रहेगी। वर्तमान समय में यह कहना मुश्किल है कि अर्थव्यवस्था का आगामी आकार 'यू' के आकार में होगा अथवा 'एल' के आकार में। बहरहाल, 21 दिन के लॉकडाउन का ही लम्बा प्रभाव पड़ेगा। सर्वप्रथम जिन लोगों ने बैंक से ऋण ले रखा है उनके द्वारा ली गई रकम पर ब्याज चढ़ता जायेगा जबकि उस रकम से बनाई गई फैक्टरी या व्यापार ठप पड़ा रहेगा। यानी आय शून्य लेकिन खर्च बढ़ता जायेगा इसलिए कई उद्योगों, विशेषकर छोटे उद्योगों का दिवालिया निकलेगा। रोजगार कम होने से लॉकडाउन के बाद भी बाजार में मांग नहीं बढ़ेगी। यदि बैंकों ने इस अवधि के ब्याज को माफ कर दिया तो यह संकट बैंक पर आएगा। बैंक ने जमाकर्ताओं से रकम ले रखी है और उस पर बैंक को ब्याज तत्काल देना होगा जबकि उनके द्वारा उधार दी गयी रकम से इस अवधि में उनको आय नहीं होगी। बैंकों की समस्या बढ़ेगी। यदि बैंकों को इस संकट से बचाने के लिए सरकार ने पूंजी निवेश किया तो यह संकट बैंकों से खिसककर सरकार पर आएगा। सरकार बाजार से ऋण लेकर बैंकों में निवेश करेगी परन्तु इस निवेश से सरकार की आय में वृद्धि नहीं होगी। यदि सरकार ऋण लेकर हाईवे बनाती तो उस पर आवागमन ज्यादा होता, जिसके कारण अर्थव्यवस्था बढ़ती और सरकार को टैक्स अधिक मिलता। लेकिन ऋण लेकर बैंक के घाटे की भरपाई करने से ऐसी अतिरिक्त आय नहीं होगी। सरकार द्वारा आज लिया गया ऋण भविष्य पर बोझ बनेगा। इसलिए 21 दिन के लॉकडाउन का ही प्रभाव लम्बा खिंचेगा। इसी प्रकार मौद्रिक नीति की भी सीमा है। सरल मौद्रिक नीति के अंतर्गत रिजर्व बैंक ब्याज दरों को कम कर देता है। रिजर्व बैंक को छूट होती है कि अपने विवेक के अनुसार वह ब्याज दरों को कम करे। इन कम ब्याज दरों पर कमर्शियल बैंक मनचाही रकम को रिजर्व बैंक से ऋण के रूप में ले सकते हैं। इसके बाद बैंक द्वारा उस रकम को सरकार को अथवा दूसरे उद्योगों को ऋण के रूप में दिया जाता है। लेकिन रिजर्व बैंक यदि ब्याज दरों को शून्य भी कर दे तो भी जरूरी नहीं कि कमर्शियल बैंक रकम को लेकर उद्योगों को देने में सफल होंगे। यह बात जापान के अनुभव में स्पष्ट देखी जा सकती है। वहां बीते कई वर्षों से केन्द्रीय बैंक ने ब्याज दर शून्य कर रखी है। अमेरिका ने भी कोरोना संकट आने के बाद ब्याज दर को शून्य कर दिया है। लेकिन शून्य ब्याज दर पर भी उद्यमी अथवा व्यापारी ऋण लेकर निवेश करने को तैयार नहीं है और उपभोक्ता ऋण लेकर बाइक या फिज खरीदने को तैयार नहीं है क्योंकि इन्हें आने वाले समय में होने वाली आय पर भरोसा नहीं है। इसके अलावा नोट छापने की भी सीमा है। यदि नोट छापने मात्र से आर्थिक विकास हो सकता होता तो जवाहरलाल नेहरू के समय ही रिजर्व बैंक ने भारी मात्रा में नोट छापकर आर्थिक विकास हासिल कर लिया होता। लेकिन ऐसा नहीं होता है। कारण यह कि जब अधिक मात्रा में नोट छापे जाते हैं तो बाजार में मूल्य बढ़ने लगते हैं। जैसे यदि बाजार में 100 किलो गेहूं है और वर्तमान में बाजार में 2,000 रुपये की मुद्रा प्रचलन में है तो गेहूं का दाम 20 रुपये होगा। लेकिन यदि रिज़र्व बैंक ने अधिक नोट छाप कर बाजार में 20,000 रुपये की मुद्रा प्रचलन में ले आयी तो गेहूं का दाम भी समानांतर रूप में 20 रुपये किलो से बढ़कर 200 रुपये प्रति किलो हो जायेगा। यही कारण है कि द्वितीय विश्व युद्ध के अंत के समय जर्मनी में एक डबल रोटी को खरीदने के लिए लोगों को लाखों मार्क ले जाने पड़ते थे। तात्पर्य यह कि मौद्रिक नीति से अर्थव्यवस्था को बढ़ाना थोड़े समय के लिए संभव होता है जब तक महंगाई न बढ़े। जब नोट छापने से महंगाई बढ़ने लगती है तो यह नीति पूरी तरह फेल हो जाती है। स्पष्ट है कि कोरोना के 21 दिन के संकट का ही न तो वित्तीय नीति में हल है न मौद्रिक नीति में। मेरे आकलन में कोरोना का सामना करने के लिए हमें अर्थव्यवस्था को छोटे-छोटे हिस्सों में बांट देना चाहिए जैसे संयुक्त परिवार को साथ में बनाये रखने के लिए कभी-कभी किचन को अलग करना होता है। हर राज्य के चारों तरफ दीवार खड़ी कर देनी चाहिए। जैसे यदि महाराष्ट्र में कोरोना का संकट है तो उस संकट को दूसरे राज्यों में फैलने से रोकने के लिए कर्नाटक, मध्य प्रदेश और गुजरात के चारों तरफ दीवार खड़ी कर देनी चाहिए। लोगों का अवागमन बंद कर देना चाहिए, जिससे महाराष्ट्र का संकट महाराष्ट्र तक ही सीमित रहे और दूसरे राज्यों में न बढ़े। समस्या यह होगी कि कि यदि गुजरात में दूसरे राज्यों से लोगों का आवागमन सीमित हो गया तो गुजरात के उद्योगों को अपने ही कर्मियों, इंजीनियरों और डाक्टरों से अर्थव्यवस्था चलानी होगी। मान लीजिये महाराष्ट्र के इंजीनियर अधिक कुशल हैं। गुजरात में उनका प्रवेश बंद हो जायेगा। तब गुजरात को अपनी तुलना में अकुशल इंजीनियर से उत्पादन करना होगा। इसी प्रकार महाराष्ट्र को गुजरात से कुशल फिटर या डॉक्टर मिलना बंद हो जायेंगे। इस आवागमन के अवरुद्ध होने से गुजरात और महाराष्ट्र दोनों ही उत्पादन लागत में वृद्धि होगी लेकिन हम आर्थिक संकट से उबर सकेंगे। गुजरात में आर्थिक गतिविधियां सामान्य रूप से चल सकेंगी क्योंकि दूसरे राज्यों से गुजरात में कोरोना का प्रवेश नहीं हो सकेगा। अतः हमें तत्काल अर्थव्यवस्था को छोटे टुकड़ों में बांटकर मनुष्यों के आवागमन को इनके बीच सीमित करने की व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे उन राज्यों में लॉकडाउन खोला जा सके जहां संक्रमण सीमित है।